Monday, May 20, 2024
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मातृभाषा के प्रयोग का प्रभाव : प्रारंभिक स्तर पर शिक्षा के माध्यम के रूप में

इस जगत् में समस्त जीवों में भाषा ही वह विलक्षण उपलब्धि है जो मानव को अन्य प्राणियों से अलग करती है। समाज एवं संस्कृति जो मानव समुदाय की ही विशेषता है, के प्रसार और अगली पीढ़ियों में स्थानांतरण में भाषा ही अपना योगदान करती है। किसी संस्कृति की विशेषताएं, रीति रिवाज, संस्कार और शिक्षाएं इत्यादि भाषा के ही माध्यम से एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक संचरित होती है। मानव इतिहास में मानव जैसे जैसे अन्य समाजों के संपर्क में आया उसने अपनी भाषा अर्थात् मातृभाषा के अतिरिक्त अन्य भाषाओं को भी सीखना और समझना प्रारंभ किया। इसका परिणाम है यह हैं  कि आज विश्व में और हमारे देश में सहस्रों की संख्या में भाषाएं प्रचलित है।

समाज को जीवंत बनाने में मातृभाषा

किसी भी समाज को जीवंत बनाने में तथा उसे शिक्षा संस्कार के माध्यम से विकसित करने में सर्वाधिक योगदान मातृभाषा का ही होता है। जिस प्रकार किसी समाज को जीवित रखने में मातृशक्ति अर्थात् महिलाओं का होना आवश्यक है, उसी भांति किसी समाज की शिक्षा और संस्कार के विकास और उन्नति में मातृभाषा का महत्व बहुत अधिक  है। विभिन्न शोधों के आधार पर मनोविज्ञानियों, शिक्षाविदों और वैज्ञानिकों का यह मत है कि बच्चे को मातृभाषा में शिक्षण देना सर्वाधिक फलदायी होता है। विशेषकर प्रारंभिक शिक्षा तो मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए। क्योंकि कोई भी बालक या कोई भी व्यक्ति चिंतन अपनी मातृभाषा में ही करता है। अतः यदि शिशु को आरंभ से ही उसकी मातृभाषा में शिक्षा प्रदान की जाए तो किसी अन्य भाषा की तुलना में बच्चा अधिक शीघ्रता से सीखता है।

देश के विकास में मातृभाषा

विश्व में उन्नति के शिखर पर विराजमान अधिकांश विकसित देशों के उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी भी राष्ट्र के विकास में मातृभाषा का और उसमें शिक्षण का सर्वाधिक महत्व है। चीन, जापान,जर्मनी, फ्रांस, जैसे देश इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। यह मातृभाषा का ही प्रभाव है कि एक तीन वर्ष का शिशु भी, जो कि अपनी भाषा के व्याकरण को नहीं जानता है, लेकिन वह अपने परिजनों अपने संगी साथियों आदि के साथ संवाद में भाषा की दृष्टि से शुद्ध वाक्यों का और कभी-कभी तो लंबे वाक्यों का प्रयोग कर सरलता से कर  लेता है।

भारत में मातृभाषा का स्थान

भारत जो कि भाषायी एवं सांस्कृतिक विविधताओं का देश है, में भी संविधान निर्माताओं ने संविधान के निर्माण के समय इस विषय पर गहन विचार विमर्श हुआ कि शिक्षा का माध्यम क्या हो ? अंततः उन संविधान निर्माताओं ने भी संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में बच्चे को अनिवार्य शिक्षा के अधिकार को रखते समय मातृभाषा में शिक्षण को अपरिहार्य एवं अनिवार्य माना।

इतना ही नहीं संविधान के मौलिक अधिकार वाले भाग में भाषायी और धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपनी भाषाओं के संरक्षण हेतु विशेष प्रावधान का विधान किया गया। यही कारण है कि जब 2009 में शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के लिए अनिवार्य और नि:शुल्क शिक्षा का अधिकार शामिल किया गया तो उसमें यह प्रावधान किया गया कि छ: वर्ष से चौदह वर्ष के बच्चे को मातृभाषा में शिक्षा देना राज्य का कर्तव्य होगा और इससे वंचित  होने पर कोई भी व्यक्ति या बालक इस हेतु न्यायालय की शरण में जा सकता है।

भारत में उन्नीस सौ साठ के दशक में जब दक्षिण में भाषा के संदर्भ में विवाद उत्पन्न हुआ, उसके उपरांत सरकार द्वारा स्वीकृत त्रिभाषा फार्मूला में भी बच्चों की मातृभाषा को स्थान दिया गया। ना ही नहीं नई शिक्षा नीति  अनुपालन में भारत सरकार के निर्देश पर एनसीईआरटी द्वारा विकसित राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा – 2005 में जिन पांच प्रमुख मार्गदर्शक सिद्धांतों को अपनाया गया उसमें से एक यह भी है कि बच्चे को मातृभाषा में शिक्षा प्रदान की जाएं और बहुभाषिकता का बालक के विकास में एक संसाधन की तरह प्रयोग किया जाए।

भाषा वैज्ञानिकों के मातृभाषा के बारे में विचार

विश्व के शीर्षस्थ भाषा वैज्ञानिकों एवं मनोविज्ञानियों का यह निष्कर्ष है कि यदि हम बच्चे, विशेषकर प्राथमिक स्तर के बच्चों के शिक्षण में मातृभाषा के साथ साथ बहुभाषिकता को भी ध्यान में रखें तो ऐसे बच्चों की बुद्धिलब्धता (इंटलीजेंस) और बुद्धिमता गुणांक (आईक्यू) अन्य बच्चों से अधिक होता है। ऐसे बच्चे अधिक क्षमतावान एवं कुशल होते है। वे जीवन में आने वाली समस्याओं का समाधान भी अन्य बच्चों की तुलना में बेहतर तरीके से करते हैं। नोम चोमस्की जैसे विश्व के वर्तमान भाषाविद् और विचारक ने तो अपने अनेक शोधों के आधार पर यह बताया कि किसी व्यक्ति में जन्म के साथ ही मस्तिष्क में भाषा एवं व्याकरण का एक भाग (फैकल्टी) होता है। यह भाग किसी बालक में लगभग तीन वर्ष की अवस्था से लेकर बारह वर्ष की सर्वाधिक अवधि तक यह सर्वाधिक सक्रिय होता है। इस आयु के बच्चों में यह जन्मजात क्षमता होती है कि वह न केवल दो या तीन बल्कि अनेकों भाषाएं सीख सकता है। लेकिन लगभग बारह वर्ष की आयु के बाद मस्तिष्क का यह भाग क्षीण होने लगता है। यही कारण है कि एक बालक में एक वयस्क की तुलना में अधिक भाषा को सीखने की क्षमता होती है।

प्रारंभिक स्तर पर शिक्षा को मातृभाषा में दिए जाने का महत्व

प्रारंभिक स्तर पर भारत में भी बच्चों के शिक्षण के बुरे परिणाम का एक प्रमुख कारण यह भी है कि हम बच्चे का उसकी मातृभाषा में शिक्षा न देकर उसको अंग्रेजी या किसी अन्य भाषा में शिक्षण दे रहे हैं। जो कि मनोविज्ञान के नैसर्गिक सिद्धांत के विपरीत है। अनके शोधों से यह भी निष्कर्ष निकलता है कि बच्चों के भाषा इतर विषयों का परिणाम भी खराब होने का एक कारण है कि बच्चे को मातृभाषा में शिक्षण देने के बजाय हम उसे ऑग्ल भाषा (अंग्रेजी) में शिक्षण दे रहे हैं। यही कारण है कि भाषा और मातृभाषा में शिक्षण देने के कारण वह गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान व अन्य विषयों में भी खराब परिणाम दे रहा है।

अतः निष्कर्ष स्वरूप यह कहा जा सकता है कि यदि हम भारत में बच्चों को मातृभाषा में शिक्षण प्रदान करें, तो हम गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लक्ष्य को अधिक शीघ्रता से प्राप्त कर सकते हैं।

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